Sunday, November 1, 2015

कुछ क़त्ल हुऐ
अफवाहों का बाजार गरम हुआ
क़ातिल न मिला
एक सोच बन बैठी कसूरवार ।

ज़ख़्मी  दिल थे कई
मौके की  तलाश में
चर्चो का बाजार गरम हो चला
चले थे जो मिलों लाशो की ढेर पे
जगे ज़मीर का वास्ता दे
लौटा रहे हैं अपना इनाम ।

सुना था" कुछ बात हैं की मिटती नहीं हस्ती हमारी"
क्या महज चंद घटनाएँ हिला देंगी बुनयाद हमारी ?
आईने में देखा खुद को ,बाहर की आवो हवा का जायजा लिया
सब कल सा ही था ,सिवाए कुछ चीखते बंद सोच वाले जमात के -
जो जोर जोर से कह रहे "उनकी बोलने की आज़ादी छीन गयी" ।

हज़ारों तूफान भी नहीं तोड़ पायी
जहाँ  की  विविध्ताओं   को
मत बांध्ये  वहा की सोच को परिधि  में
न आपकी न उनकी
ज़िंदा रहने दीजिये सबकी अपनी अपनी सोच ।
              -अमर 

Sunday, September 27, 2015


वे  जंग  भी  बहुत    ख़ूबसूरत    होते   हैं 
दुश्मनों के दिल में जब ईमान बरसते हो  । 

***

खर्च दिए       ख्याल सारे
      दुसरो की ज़िंदगी संभालने में 
उधार ढूंढ़ता हु सोच अब  
     अपनी   ज़िंदगी    संवारने को  । 

***

ज़िंदगी का सफर भी खूब रहा 
जिस किनारे को मंज़िल समझ उतरा 
मालूम हुआ मेरी ज़िंदगी यही से शुरू हुई थी । 



Saturday, August 15, 2015



बरसों  की   ख़ामोशी  का  अंत   भी  खूब   रहा 
खयालों  के अनगिनत परत  खुलती चली गयी  ।

*
तलब   हैं ऐ  ज़िंदगी  तुमसे  बात  करने की
खुद के हालात बयां कर दिल को सकूँ आये ।

*
किया खूब बयां किया तुमने अपने एहसासों को
कुछ  शब्द  चुरा   मेरी  नज़म भी जवा हो उठी ।

- अमर 

Saturday, July 25, 2015

भीनी भीनी सी खुश्बू आयी हैं तेरे शहर से
बड़ा मुश्किल होता हैं दिल को समझाना
मत बाँधा कर मुझको वादों की  ज़ंजीर से
जी चाहे बन मुशफिर फिर लौट आऊँ तेरे शहर को 

Saturday, May 9, 2015

अजीब ऐ हालात में फंस गयी  हैं ज़िंदगी 
न  आगे  जाती  हैं ,  न  पीछे  मुड़ती  हैं । 

Saturday, April 25, 2015

हज़ारों के   जनाजे में रोना  भी  नहीं   आता   हैं
ख़ुदा से ख़ुदा की शिकायत कर सुकून ढूंढ लेते हैं ।


हर   के   हाथों     में         खंज़र
दिल   में   दुश्मनों  की  कतार हैं । 
मौकापरस्ती का अब ये आलम हैं 
बेगुनाही की एक शाख के ताक में   
हर कोई कत्ले आम को बेताब  हैं । 


Sunday, April 5, 2015

तेरा यकीन

इक   मैं   हु,  इक  तेरा  यकीन   हैं
इंसान एक, दोनो कितने अलग हैं ।

ढलते सूरज को देख , अँधेरे कि सोचता मैं
और तुम करती हो मेरी सुबह का इंतज़ार ।

राहें हजार , देख मेरे कदम डगमगा जाते हैं
और तुम हर राहों पे ढूंढ लेती हो मेरे निशान ।

हर हालात में , थामे रखा हैं तुमने मेरा हाथ
जाने  क्यों करती  हो तुम मुझसे इतना प्यार ।

Saturday, March 28, 2015

?

मत कर बदनाम इतना की  नाम न होने लगे
उनकी जगह  तेरी नीयत  पे शक न होने लगे ।
                                                 - अमर 

Sunday, March 1, 2015


मिलता नहीं कोई यहाँ अपनी मज़हब का
दे दे ख़ुदा  थोड़ी  सी  जमी  घर बसाने को ।

हज़ारों    निगाहों    का    शिकार    हु    मैं
मेरी लहू में अपनी किस्मत देख बैठे हैं वे ।

जाने   कितने   रंगो  मैं  रंग रखा हैं मुझको
मालूम नहीं मगर उनको मैं तो बस बेरंग हु । 


Sunday, January 11, 2015

खुले आम क़त्ल



जिस  शाख पे बैठ खुले आम क़त्ल करते रहे
हज़ारों  जुबां  उन्हें  ही   बेगुनाह  बताते  रहे   ।
 
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पी लेने दे थोड़ा सा  काम ,थोड़ी सी ज्यादा
हर का हो बस इक  पैमाना ,  ज़रूरी  नहीं   ।