कुछ क़त्ल हुऐ
अफवाहों का बाजार गरम हुआ
क़ातिल न मिला
एक सोच बन बैठी कसूरवार ।
ज़ख़्मी दिल थे कई
मौके की तलाश में
चर्चो का बाजार गरम हो चला
चले थे जो मिलों लाशो की ढेर पे
जगे ज़मीर का वास्ता दे
लौटा रहे हैं अपना इनाम ।
सुना था" कुछ बात हैं की मिटती नहीं हस्ती हमारी"
क्या महज चंद घटनाएँ हिला देंगी बुनयाद हमारी ?
आईने में देखा खुद को ,बाहर की आवो हवा का जायजा लिया
सब कल सा ही था ,सिवाए कुछ चीखते बंद सोच वाले जमात के -
जो जोर जोर से कह रहे "उनकी बोलने की आज़ादी छीन गयी" ।
हज़ारों तूफान भी नहीं तोड़ पायी
जहाँ की विविध्ताओं को
मत बांध्ये वहा की सोच को परिधि में
न आपकी न उनकी
ज़िंदा रहने दीजिये सबकी अपनी अपनी सोच ।
-अमर
-अमर
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