न बंदूक न बाजुओं में ताकत
पर लड़ने को जी चाहा हैं
कुछ बदलने को जी चाहा हैं ।
मालूम नहीं बचे होंगे उन आँखों में आंसू अब
दिल रोता हैं लेकिन मेरा
हजारों रूहों कि चीख सुन सुन के ।
ख़ूनी नाख़ून से खरोचे हु वे जिस्म
जिंदा हो के भी मरते जाते हैं -
सिहर उठ रहे हर सोच मेरी ।
बुझने न देंगे मसाल अब
लड़ने को जी चाहा हैं
कुछ बदलने को जी चाहा हैं ।
-अमर
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