Saturday, July 19, 2008

पिघलते जिस्म के रंग

पिघलते जिस्म के रंग
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पिघलते जिस्म के रंग को देख
डर गया हु मैं !
हर एक के चेहरे अनेक देख
डर गया हु मैं !
किस्से उम्मीद करूँ मैं ,
भरोसे के कतल को देख
डर गया हु मैं !
किसका साथ मंगू मैं ,
एहशानफरामोशी के हद को देख
डर गया हु मैं !
इस शहर कि आवो हवा मैं
अपनी साँसों का मतलब
भूल गया हु मैं !
पिघलते जिस्म के रंग को देख
डर गया हु मैं !
---- कुमार अमरदीप

1 comment:

अति Random said...

is shahar ki aabo hwa me nahi kahi bhi jaieye yahi aalam hai bharose ka katal,ehsanframoshi,ek chahere ke kai roop ..........khair jo bhi ho likhne vale to har dard ko shabdo me dhaal kar sukun talash kar hi lete hai
kam sahbdo me apne bhi acha pryas kiya hai